समरथ को नहीं दोष गुसांई
उत्तराखण्ड में आज कई पर्वतीय जपनदों में आम जनजीवन की परिस्थितियां इतनी जटिल हो चुकी है जिसका सरकार शायद कोई अनुमान ही नहीं लगा पा रही है या लगाना ही नहीं चाह रही है। हर गांव, हर शहर के चैराहों में महिलाओं व क्षेत्रवासियों द्वारा शराब के विरोध में प्रदर्शन किये जा रहे हैं वहीं प्रदेश सरकार द्वारा इस विरोध पर आंख बन्द करते हुए आबकारी विभाग से विगत वर्ष की प्राप्त आय 1900 करोड़ को इस वर्ष बढाकर 2300 करोड़ करने का लक्ष्य रखा गया है।
16 वर्षों में 9 मुख्यमंत्री देख चुके उत्तराखण्ड में इस बार पूर्ण बहुमत से आई सरकार के लिए इस बार अच्छा अवसर था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर अधिकांश जनता को सन्तुष्ट करते हुए नेशनल हाईवेज व स्टेट हाईवेज से शराब की दुकानों व बीयर बार को दूर कर दिया जाता परन्तु तुरन्त नया शासनादेश लाते हुए 64 स्टेट हाईवेज को जिला मार्गाें में तब्दील करने का फरमान सुना दिया गया। इसके बाद भी बची हुई शराब की दुकानें जिन्हें राष्ट्रीय राजमार्गों में आने के कारण 500 मीटर से दूर स्थापित किया जाना है उन्हें विस्थापित करने में प्रशासन की सांसे फूल रही हैं।
वर्तमान समय में जब पूरा पर्वतीय क्षेत्र पलायन से जूझ रहा है, गांवों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य व सड़क जैसी मूलभत सुविधाऐं भी उपलब्ध नहीं हैं, इन समस्याओं के समाधान को छोड़ते हुए गांवों में राजस्व के नाम पर जबरन ठेके खोले जा रहे हैं। विभिन्न पर्वतीय जनपदों में कई जगह पर ये बातें सामने आ रही हैं कि क्षेत्रीय जनता के भारी विरोध के बावजूद जबरन ठेके खोले जा रहे हैं ये कहते हुए कि ऐसा कोई शासनादेश नहीं है कि ठेका खोलने या दुकान आवंटन से पूर्व ग्राम सभा से कोई अनुमति ली जाये। अपने जीवन के मौलिक अधिकारों और सुविधाओं से दूर रह रहे इन ग्रामीणों को सुविधाऐं उपलब्ध कराना तो दूर रहा इन्हें और नशे में ढकेलने का प्रयास किया जा रहा है।
केवल राजस्व के नाम पर जनता को नशे से, और हमारे पहाड़ व नदियों को खनन से खोखला करने का कार्य किया जा रहा है। बाद में बेतरतीब विकास और राजस्व के नाम से अर्जित ये धन स्वयंजनित प्राकृतिक आपदा के राहत कार्यों में खर्च हो जाता है। क्या हमारे प्रदेश में शराब व खनन के अतिरिक्त कोई ऐसे स्त्रोत नहीं हैं जिनसे राजस्व अर्जित किया जा सके। कृषि, फलोत्पादन, स्वरोजगार, साहसिक खेल, धार्मिक पर्यटन, प्राकृतिक सौन्दर्य, हिमशिखर, चार धाम, वन सम्पदा, निर्मल जल सब कुछ उपलब्ध होते हुए भी हम अगर अपने प्रदेश को उधेड़ने उजाड़ने पर तुले रहें तो पहाड़ों से पलायन पर बड़ी बड़ी विचारगोश्ठियां एक दिखावे के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
आखिर कब तक देहरादून और बड़े शहरों के विकास और मंत्रि विधायकों के आराम हेतु राजस्व का रस इन दूरस्थ, कमजोर, पलायन से ग्रस्त पर्वतीय जनपदों से निचोड़ कर निकाला जाता रहेगा। शायद जल्द ही शराब पर जनविरोध को देखते हुए शराब की दुकानों पर अनुज्ञापी व कर्मियों की जनता से सुरक्षा हेतु पुलिस बल उपलब्ध कराने का आदेश पारित हो जाये, जिसकी कार्यवाही चल रही है। पर पता नहीं जनता की इस नशे रूपी सुरसा से रक्षा कौन करेगा। वैसे भी तुलसीदास जी कह गये हैं- ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई।‘ सामथ्र्यवान का क्या दोष, दोष तो निर्बल ही करते है।
उत्तराखण्ड में आज कई पर्वतीय जपनदों में आम जनजीवन की परिस्थितियां इतनी जटिल हो चुकी है जिसका सरकार शायद कोई अनुमान ही नहीं लगा पा रही है या लगाना ही नहीं चाह रही है। हर गांव, हर शहर के चैराहों में महिलाओं व क्षेत्रवासियों द्वारा शराब के विरोध में प्रदर्शन किये जा रहे हैं वहीं प्रदेश सरकार द्वारा इस विरोध पर आंख बन्द करते हुए आबकारी विभाग से विगत वर्ष की प्राप्त आय 1900 करोड़ को इस वर्ष बढाकर 2300 करोड़ करने का लक्ष्य रखा गया है।
16 वर्षों में 9 मुख्यमंत्री देख चुके उत्तराखण्ड में इस बार पूर्ण बहुमत से आई सरकार के लिए इस बार अच्छा अवसर था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आधार पर अधिकांश जनता को सन्तुष्ट करते हुए नेशनल हाईवेज व स्टेट हाईवेज से शराब की दुकानों व बीयर बार को दूर कर दिया जाता परन्तु तुरन्त नया शासनादेश लाते हुए 64 स्टेट हाईवेज को जिला मार्गाें में तब्दील करने का फरमान सुना दिया गया। इसके बाद भी बची हुई शराब की दुकानें जिन्हें राष्ट्रीय राजमार्गों में आने के कारण 500 मीटर से दूर स्थापित किया जाना है उन्हें विस्थापित करने में प्रशासन की सांसे फूल रही हैं।
वर्तमान समय में जब पूरा पर्वतीय क्षेत्र पलायन से जूझ रहा है, गांवों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य व सड़क जैसी मूलभत सुविधाऐं भी उपलब्ध नहीं हैं, इन समस्याओं के समाधान को छोड़ते हुए गांवों में राजस्व के नाम पर जबरन ठेके खोले जा रहे हैं। विभिन्न पर्वतीय जनपदों में कई जगह पर ये बातें सामने आ रही हैं कि क्षेत्रीय जनता के भारी विरोध के बावजूद जबरन ठेके खोले जा रहे हैं ये कहते हुए कि ऐसा कोई शासनादेश नहीं है कि ठेका खोलने या दुकान आवंटन से पूर्व ग्राम सभा से कोई अनुमति ली जाये। अपने जीवन के मौलिक अधिकारों और सुविधाओं से दूर रह रहे इन ग्रामीणों को सुविधाऐं उपलब्ध कराना तो दूर रहा इन्हें और नशे में ढकेलने का प्रयास किया जा रहा है।
केवल राजस्व के नाम पर जनता को नशे से, और हमारे पहाड़ व नदियों को खनन से खोखला करने का कार्य किया जा रहा है। बाद में बेतरतीब विकास और राजस्व के नाम से अर्जित ये धन स्वयंजनित प्राकृतिक आपदा के राहत कार्यों में खर्च हो जाता है। क्या हमारे प्रदेश में शराब व खनन के अतिरिक्त कोई ऐसे स्त्रोत नहीं हैं जिनसे राजस्व अर्जित किया जा सके। कृषि, फलोत्पादन, स्वरोजगार, साहसिक खेल, धार्मिक पर्यटन, प्राकृतिक सौन्दर्य, हिमशिखर, चार धाम, वन सम्पदा, निर्मल जल सब कुछ उपलब्ध होते हुए भी हम अगर अपने प्रदेश को उधेड़ने उजाड़ने पर तुले रहें तो पहाड़ों से पलायन पर बड़ी बड़ी विचारगोश्ठियां एक दिखावे के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
आखिर कब तक देहरादून और बड़े शहरों के विकास और मंत्रि विधायकों के आराम हेतु राजस्व का रस इन दूरस्थ, कमजोर, पलायन से ग्रस्त पर्वतीय जनपदों से निचोड़ कर निकाला जाता रहेगा। शायद जल्द ही शराब पर जनविरोध को देखते हुए शराब की दुकानों पर अनुज्ञापी व कर्मियों की जनता से सुरक्षा हेतु पुलिस बल उपलब्ध कराने का आदेश पारित हो जाये, जिसकी कार्यवाही चल रही है। पर पता नहीं जनता की इस नशे रूपी सुरसा से रक्षा कौन करेगा। वैसे भी तुलसीदास जी कह गये हैं- ‘समरथ को नहीं दोष गुसांई।‘ सामथ्र्यवान का क्या दोष, दोष तो निर्बल ही करते है।
दिग्विजय सिंह जनौटी
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