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                        पिता के पद पुत्रों के नाम
     
                          नेहरू जी जब कारागार में बंद थे तो उनके और इंदिरा जी के मध्य पत्राचार को संकलित कर ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम‘ से एक पुस्तिका तैयार की गई थी। ये ज्ञान एक विरासत था पुत्री को अपने पिता के द्वारा। एक हम लोग हैं आम आदमी, क्या देके जाते हैं अपनी औलादों को विरासत में पुराना स्कूटर, पटखाट, बर्तन चूल्हा और थोड़ा बहुत अपने ऊपर का लोन। अब वो बेचारी औलादें इस वसीयत पर खुशी जाहिर करें या गम ये भी धर्मसंकट रहता है। अपने कर्मों पर तो हमारा सिर शर्म से तब से घुटनों में घुस जाता है जब बच्चों के साथ समाचार देख रहे हों और ब्रेकिंग खबर आ जाये की बेटे को ये पद या चुनाव टिकट नहीं मिलने पर वरिश्ठ एवं दिग्गज नेता ने पार्टी को ठोकर मार दी। बच्चे हमारी तरफ कलयुगी रिश्ते की नजरों से देखते हुए नजरों से ही कह डालते हैं- अभी भी कुछ शरम बाकी है आपमें। बाप का फर्ज इनसे सीखो। ये एक खबर हमारे बच्चों के सामने हमारे कपड़े निचोड़ देती है। चुनावों के शुरूआत के दिनों से ही इन आदर्श पिताओं और सौभाग्यशाली बच्चों की ही ब्रेकिंग न्यूज चली जा रही हैं। ये वरिष्ठ लोग अपने बच्चों को मनपसंद पद या चुनावी सीट से टिकट दिला कर ही मानते हैं और न मिलने पर पार्टी और अपने पद को ठोकर मार देते हैं इन वरिष्ठ नेताओं के पास ठोकर मारने के लिए कई पार्टियां और पद उपलब्ध रहते हैं। साधन और सुविधाओं की कोई कमी नहीं, एक को ठोकर मारें तो दूसरी पार्टी मुस्कुराते हुए बाहें फैला कर ठोकर खाने को तैयार रहती है। हम जो बच्चे के महंगे काॅलेज के एडमिशन में ही रोड पर आ गये और इसके आगे बच्चों को एडजस्ट करने के लिए जो ठोकरें हमने मारनी हैं वो अपने ही सिर पर मारनी हैं। हमारी ठोकरें और खायेगा भी कौन। हम रोड में पड़े पत्थर को भी ठोकर मारें तो वो भी सामने से वापस पलट कर हमें ही लगता है।  
 दल बदलने के बाद नेतागणों के स्पष्टीकरण व चर्चा आपस में कुछ इस प्रकार होगी- चैराहों में माइक पकड़ कर विपक्षियों को काफी गलिया लिया, अब गले मिलने के दिन आ गये हैं। दुश्मनी कौन सी पुश्तैनी है। खोट तो हर किसी में होते हैं, पाप से घृणा करो पापी से नहीं बापू भी ऐसा बोल के गये थे फिर हम कोई राष्ट्रपिता से बढे थोड़े ही हैं। बेटा हमारा बड़ा लायक है पर क्या करें और पार्टी कार्यकर्ताओं की तरह लाइन में लगे रहेगा तो बुढापे तक ग्राम प्रधान तक ही रह जायेगा। बड़े बाप का लड़का होने का फायदा ही क्या जब सटासट पद न मिलते रहें तो। छोटे मोटे पदों को हमारे बच्चे देखते भी नही, इन्हें कुछ समर्पित पार्टी कार्यकर्ताओं की जीवन भर की मेहनत के तौर पर बांट दिया करो, खुश रखने के लिए। वरना जितना दोगे महत्वाकांक्षाऐं बढेंगी इनकी। हमारे बच्चों का कद इनसे कहीं बड़ा है। आखिर बेटा किसका है। अभी कल घरवाली भी कह रही थी कि मैं भी चुनाव लडूंगी, पता नहीं किसने क्या समझाया। अब एक टिकट और चाहिये। धीरे धीरे सब एडजस्ट हो रहे हैं। राजनीति में आक्षेप तो लगते रहते हैं, चलता है। हम कौन सा सीता मैया है जो आक्षेप लगने पर अग्निपरीक्षा दे दें। और कौन सा आलाकमान ही भगवान राम हैं जो हम पर उंगली उठायें। फिर दिल ना लगा तो घर वापसी ही कर लेंगे। सिद्धू जी को देख लो जन्मजात कांगे्रसी होकर भी इतने साल भाजपा में गुजार दिये और आज तक कांग्रेस को गलियाते रहे। अब जाकर पंजाब चुनाव में उनको सत्य का भान हुआ कि वो तो जन्मजात कांगे्रसी हैं तो बिना हिचक घर वापसी कर ली। और राजनीति की एक साख और ले लो कि शर्म और राजनीति एक साथ नहीं रह सकती। जब खुद संतुष्ट होगे और परिवार को खुश रखोगे तभी देश के लिए सोच सकोगे इसलिए पहले खुद के लिए कमाओ फिर बच्चों को सेटल करो। देश खुद तरक्की करेगा।
 आखिर आदमी कमाता ही किसके लिए है, औलादों के लिए ही तो ना। तो फिर देश में जोशीले युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत तिवारी जी या कुछ और वरिश्ठ नेता अपने बच्चों के फ्यूचर के लिए कुछ कर गुजरे तो काहे हाय तौबा मचा रहे हो,भैया। अपनी विरासत भी तो बचानी है।

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