डूबते गांव, बचता हिमालय
मैं खुशकिस्मत हूं कि मेरे घर से स्वच्छ धवल हिमशिखर नंदादेवी, त्रिशूल, पंचाचूली समेत काफी विस्तृत हिमश्रृंखला का बहुत सुंदर दृश्य दिखता है। इतना सुंदर कि कभी कभी लगता है जैसे प्रकृति द्वारा एक बड़ा सा वॉलपेपर लगाया गया हो। कभी-कभी जाड़ों में घंटो इसे देखता रहता हूं। पर जब मैंने पिछले कुछ दिनों में सरकार द्वारा बड़े बड़े कार्यक्रमों में हिमालय को बचाने की शपथ लेते हुए और देते हुए देखा तो यूं ही ख्याल आया कि क्या हिमालय सिर्फ बर्फ का एक पहाड़ है जिसे हमने बचा लेना है। क्या ये नदियां, यह गांव, ये जंगल हिमालय का हिस्सा नहीं है क्या यहां की संस्कृति यहां की सभ्यता हिमालय का हिस्सा नहीं है। क्या इन सब से अलग होकर हिमालय अपना अर्थ नहीं खो देता। क्या ये हिमालय हम लोगों का घर हमारा आश्रय हमारा पर्यावरण नहीं है। आज हम इसी हिमालयी पर्यावरण से खिलवाड़ करते हुए जनता में चर्चा पाने के लिए इसे ही बचाने की शपथ भी लेते जा रहे हैं। जहां एक ओर विकास के नाम पर भारत के 120 वर्ग किमी क्षेत्र में स्थित 134 हिमालयी गांव को डुबा कर क्षेत्र की लगभग 33000 की आबादी को यहां से पलायन करवाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर राज्य में पलायन रोकने के लिए आयोग और समितियों का भी गठन किया जा रहा है। प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के विस्तार का अनुमान ऐसे भी लगाया जा सकता हैं कि जहां टिहरी बांध जो कि विश्व के बड़े बांधों में सुुमार किया जाता है का क्षेत्रफल 52 वर्ग किमी है वहीं पंचेश्वर बांध का क्षेत्रफल 116 वर्ग किमी है। टिहरी बांध की ऊँचाई 260 मी0 है वहीं दक्षिण एशिया के इस सबसे बडे़ प्रस्तावित बांध की ऊँचाई 311 मीटर है। आपदा प्रदेश बन चुकी इस देवभूमि को हम लगातार उधेड़ते जा रहे हैं। इन टूटते पहाड़ो को हम और गलाने की तैयारी करते हुए हिमालय बचाने की शपथ लेते जा रहे हैं। क्या हिमालय जैसे संवेदनशील पर्यावरण क्षेत्र में इतने बड़े बांधों की आवश्यकता है। क्या इतने बड़े पर्यावरणीय हेर फेर से से स्थानीय पर्यावरण और जैव विविधता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। बरसात के मौसम में जब भूस्खलन के चलते पर्यटक तो दूर स्थानीय निवासी भी लंबे सफर करने से बचते हैं ऐसे मैं दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा बांध बनने के बाद मानसूनी आपदा पर जो प्रभाव पड़ेगा उसको नजर अंदाज करके हम अभी भी पर्यटन बढ़ाने की बातें करते हैं। हमारे क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता पर क्या इस बांध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, काश हिमालय बचाने का संकल्प लेते समय यह बातें भी हमारे ध्यान में आ जाती। केदारनाथ आपदा जैसी बड़ी प्राकृतिक आपदा और प्रतिवर्ष ना जाने ऐसे ही कितनी आपदाओं से काश थोड़ा तो सबक ले लेते। किसी के ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए अपनी पीढियों का नुकसान करने से पहले चेत जाते। वैसे मैं तो भाग्यशाली हूं कि अपने गांव से अभी भी हिमालय को देखता रहूंगा और हिमालय से ही प्रार्थना करूंगा कि इस देवभूमि को ऐसे ड्रीम प्रोजेक्ट्स से भविष्य में बचाए रखें, जिससे हजारों लोगों के पुश्तैनी घर और गांव, अपनी संस्कृति और अपने अंदर समेटे हिमालय को जिंदा रख सकें।
हिमालय दिवस की शुभकामनाऐं।
दिग्विजय सिंह जनौटी
मैं खुशकिस्मत हूं कि मेरे घर से स्वच्छ धवल हिमशिखर नंदादेवी, त्रिशूल, पंचाचूली समेत काफी विस्तृत हिमश्रृंखला का बहुत सुंदर दृश्य दिखता है। इतना सुंदर कि कभी कभी लगता है जैसे प्रकृति द्वारा एक बड़ा सा वॉलपेपर लगाया गया हो। कभी-कभी जाड़ों में घंटो इसे देखता रहता हूं। पर जब मैंने पिछले कुछ दिनों में सरकार द्वारा बड़े बड़े कार्यक्रमों में हिमालय को बचाने की शपथ लेते हुए और देते हुए देखा तो यूं ही ख्याल आया कि क्या हिमालय सिर्फ बर्फ का एक पहाड़ है जिसे हमने बचा लेना है। क्या ये नदियां, यह गांव, ये जंगल हिमालय का हिस्सा नहीं है क्या यहां की संस्कृति यहां की सभ्यता हिमालय का हिस्सा नहीं है। क्या इन सब से अलग होकर हिमालय अपना अर्थ नहीं खो देता। क्या ये हिमालय हम लोगों का घर हमारा आश्रय हमारा पर्यावरण नहीं है। आज हम इसी हिमालयी पर्यावरण से खिलवाड़ करते हुए जनता में चर्चा पाने के लिए इसे ही बचाने की शपथ भी लेते जा रहे हैं। जहां एक ओर विकास के नाम पर भारत के 120 वर्ग किमी क्षेत्र में स्थित 134 हिमालयी गांव को डुबा कर क्षेत्र की लगभग 33000 की आबादी को यहां से पलायन करवाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर राज्य में पलायन रोकने के लिए आयोग और समितियों का भी गठन किया जा रहा है। प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के विस्तार का अनुमान ऐसे भी लगाया जा सकता हैं कि जहां टिहरी बांध जो कि विश्व के बड़े बांधों में सुुमार किया जाता है का क्षेत्रफल 52 वर्ग किमी है वहीं पंचेश्वर बांध का क्षेत्रफल 116 वर्ग किमी है। टिहरी बांध की ऊँचाई 260 मी0 है वहीं दक्षिण एशिया के इस सबसे बडे़ प्रस्तावित बांध की ऊँचाई 311 मीटर है। आपदा प्रदेश बन चुकी इस देवभूमि को हम लगातार उधेड़ते जा रहे हैं। इन टूटते पहाड़ो को हम और गलाने की तैयारी करते हुए हिमालय बचाने की शपथ लेते जा रहे हैं। क्या हिमालय जैसे संवेदनशील पर्यावरण क्षेत्र में इतने बड़े बांधों की आवश्यकता है। क्या इतने बड़े पर्यावरणीय हेर फेर से से स्थानीय पर्यावरण और जैव विविधता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा। बरसात के मौसम में जब भूस्खलन के चलते पर्यटक तो दूर स्थानीय निवासी भी लंबे सफर करने से बचते हैं ऐसे मैं दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा बांध बनने के बाद मानसूनी आपदा पर जो प्रभाव पड़ेगा उसको नजर अंदाज करके हम अभी भी पर्यटन बढ़ाने की बातें करते हैं। हमारे क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता पर क्या इस बांध का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, काश हिमालय बचाने का संकल्प लेते समय यह बातें भी हमारे ध्यान में आ जाती। केदारनाथ आपदा जैसी बड़ी प्राकृतिक आपदा और प्रतिवर्ष ना जाने ऐसे ही कितनी आपदाओं से काश थोड़ा तो सबक ले लेते। किसी के ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए अपनी पीढियों का नुकसान करने से पहले चेत जाते। वैसे मैं तो भाग्यशाली हूं कि अपने गांव से अभी भी हिमालय को देखता रहूंगा और हिमालय से ही प्रार्थना करूंगा कि इस देवभूमि को ऐसे ड्रीम प्रोजेक्ट्स से भविष्य में बचाए रखें, जिससे हजारों लोगों के पुश्तैनी घर और गांव, अपनी संस्कृति और अपने अंदर समेटे हिमालय को जिंदा रख सकें।
हिमालय दिवस की शुभकामनाऐं।
दिग्विजय सिंह जनौटी
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